Psychology facts about human behavior in Hindi के आर्टिकल में आप से कुछ सवाल – क्या आप जानते हो कि हमें दूसरों के हाथ का बना खाना खुद के बनाए खाने से बेहतर क्यों लगता है? और क्यों हम उन चीजों के बारे में ज्यादा सोचते हैं जो हमारे पास नहीं है? या क्यों झूठ बोलना हमारे दिमाग के लिए इतना मुश्किल होता है?
इस आर्टिकल में हम ऐसे ही Human behaviour psychology in hindi से जुड़े बहुत से Interesting और Shocking psychological facts को आपके सामने पेश करेंगे, और साइंस की मदद से यह भी जान लेंगे कि हम जैसे बर्ताव करते है, उसके पीछे के साइंटिफिक रीज़न क्या है?
इसलिए अगले 10 मिनट तक अपनी अटेन्शन यहीं पर रखो ताकि आप कुछ नया सीख सकों और अपने टाइम की इस इन्वेस्टमेंट से एक बहुत बड़ा रिटर्न निकाल सको।
तो स्वागत है दोस्तों आपका हमारी वेबसाइट साइकोलॉजी हिंदी में पे जहाँ पे आप फैक्ट्स सिर्फ जानते या समझते ही नहीं बल्कि उसे feel भी करते है।
ह्यूमन साइकोलॉजी इन हिंदी | Human Psychology In Hindi
क्या वाकई पैसों से खुशियां खरीदी जा सकती है?
नॉर्मली हम सब से यही सुनते हैं कि पैसों का पीछा करने से खुशी नहीं मिलती लेकिन 2010 में हुई एक स्टडी में पता लगा कि हम सबका एक सैटिस्फैक्शन पॉइंट होता है जहाँ पैसों से जुड़ी खुशी पीक पर होती है। और इस पॉइंट के बाद पैसा चाहें जितना मर्जी मिलता रहे उसका हमारी खुशी पर कोई असर नहीं पड़ता। अमेरिका में यह पॉइंट आता है जब एक इंसान की एक महीने की कमाई $8500 यानी तकरीबन ₹6,00,000 जितनी हो जाती है।
इंडिया में लाइफ स्टाइल अमेरिका की तुलना में सस्ता होने की वजह से हम इस पॉइंट को 6,00,000 से थोड़ा नीचे मान सकते हैं। ये एक ऐसा पॉइंट होता है जहाँ हम लोगों की बेसिक ज़रूरतें पूरी हो जाती है। हमें खाने की परवाह नहीं करनी पड़ती। हम खुलकर शॉपिंग कर पाते हैं।
हम लेटेस्ट गैजेट्स को आसानी के साथ खरीद पाते हैं और थोड़े समय में ही हमारे पास गाड़ी और घर को लेने के लिए भी पर्याप्त रिसोर्सेस इकठ्ठा हो जाते हैं। लेकिन इन सारी बेसिक नीड्स के पूरा हो जाने के बाद एक्स्ट्रा पैसा कोई खुशी नहीं देता। वो बस हमारे लालच और हमारे खोखलेपन को भरता है।
आखिर क्यों हम ज़्यादा लम्बे वादे पुरे नहीं कर पाते?
हमारा दिमाग कुछ इस तरह से काम करता है। की अगर आप उसे बोलो की कोई काम है जो आपको एक लंबे समय बाद करना है तो वह सुस्त बन जाएगा। यह सोचकर कि अभी तो बहुत टाइम पड़ा है, अभी से क्यों नहीं इतनी एनर्जी वेस्ट करनी उसके बारे में सोचते हुए। या फिर उसकी तैयारी करते हुए हमारा दिमाग ऑप्टिमली तब परफॉर्म करता है जब हमारे ऊपर कोई अर्जेंन्सी हो।
और हमें फटाफट कोई जरूरी टास्क को पूरा करना हो। यही रीज़न है की हमारे न्यू ईयर रिज़ॉल्यूशन भी ज्यादातर फेल हो जाते हैं और गर्मियों की छुट्टियों में जब हमें होमवर्क दिया जाता है तब भी हम अपना 90% समय यही सोचकर वेस्ट कर देते हैं।
की अभी तो बहुत समय है और आखिरी के कुछ दिनों में फिर जल्दी जल्दी सब करने बैठ जाते हैं। इसलिए अपने बड़े गोल्स को हमेशा छोटे छोटे टुकड़ों में डिवाइड करो ताकि आपके पास हर समय कुछ ना कुछ करने के लिए जरूर हो वरना आपका दिमाग सुस्त बन जाएगा।
अपने दिमाग को ज़्यादा मज़बूत कैसे बनाये।
we obsess over our lack: ये साइकोलॉजिकल फैक्ट बोलता है कि जीस चीज़ की भी हमारे पास सबसे ज्यादा कमी होती है। हम उसी के बारे में हर टाइम सोचने लगते हैं। 2014 में पब्लिश हुई एक स्टडी में देखा गया कि स्केरसिटी का एक्सपिरियंस हमारे माइंड में एक हलचल पैदा इस पैदा करता है।
एग्जाम्पल के तौर पर जिस फैमिली में एक समय पर पैसों की बहुत कमी थी। तब उनके दिमाग में ये चीज़ बैठ जाती है कि उनकी हर प्रॉब्लम सॉल्व हो जायेगी जब उनके पास पैसा होगा, लड़के को अच्छी लड़की तभी मिलेगी जब उसका बैंक अकाउंट भरा हुआ होगा। या फिर दुनिया में इतनी ज्यादा नफरत इसलिए है क्योंकि लोग बस एक दूसरे के स्टेटस से जलते हैं।
या फिर खुद को दूसरों से ऊपर समझते हैं, जिस इंसान को कभी सच्चा प्यार नहीं मिला या फिर उसे धोखा दिया गया था तब वो भी यही सोचेगा की दुनिया की सारी प्रॉब्लम्स का रूट कॉज है कि लोगों में इतनी नफरत है और किसी को भी सच्चा प्यार नहीं मिलता।
इस तरह से हम हर एक्सटर्नल प्रॉब्लम मैं खुद कि स्केरसिटी माइंड को ही प्रोजेक्ट करने लगते हैं और दुनिया को एक तरफ की नज़र से ही देखने और समझने लगते है। इसलिए खुद की इस बायस को समझो और दुनिया को इतना सिम्पली स्टिक बनाने के बजाय ये सोचो कि आप खुद को लाइफ के हर एरिया में कैसे बेहतर बना सकते हो, बजाय सिर्फ अपनी लाइफ के एक एरिया के पीछे भागने के।
यह कलर हमारी आँखों को धोखा देते है।
हम already ये बात जानते हैं कि Rad Color की वेवलेंथ वज़िबल लाइट स्पेक्ट्रम में काफी हाई होती है, लेकिन Blue color की वेवलेंथ काफी कम। यही वजह हे की जब हम इन दोनों कलर्स को साथ में देखते हैं तब हमें ऐसा लगता है कि लाल रंग, नील रंग से ज्यादा पास है।
और ये चीज़ हमारे दिमाग की बहुत ज्यादा प्रोसेसिंग पावर लेती है। सेम चीज़ रेड और ग्रीन के कॉम्बिनेशन के साथ भी होती है। यही रीज़न है कि पुलिस और एम्बुलेन्स की लाइट्स भी रेड और ब्लू ही होती है। रोड पर लगे साइन यूज़्वली रेड, येलो, ब्लू या ग्रीन कलर के होते हैं और यहाँ तक की यूट्यूब पर भी आपका सबसे ज्यादा ध्यान वही थंबनेल खींचते हैं जिन्होंने इन कलर्स को जानबूझकर साथ में लगाया होता है।
दुसरो का पकाया खाना ज़्यादा मजेदार क्यों?
क्या कभी आपने अपने आप से ये प्रश्न करा है कि क्यों स्कूल में किसी दूसरे का लंच हमेशा आपको मिले खाने से बेहतर लगता है? या क्यों एक साधारण सा खाना एक रेस्टोरेंट में ज्यादा टेस्टी लगता है। बजाय वही खाना घर में खुद बनाकर खाने के?
साइंस मैगजीन में पब्लिश हुई एक स्टडी में पता चला कि जब भी हम खुद अपना खाना बनाते हैं तब हम उसके पास इतने ज्यादा समय के लिए होते हैं कि जब तक वो खाना तैयार होता है तब तक हमारा आधे से ज्यादा एक्साइटमेंट खत्म हो गया होता है।
और जब हम खाना शुरू करते हैं तब चाहे वो जितना भी टेस्टी हो हमें उतनी ज्यादा सैटिस्फैक्शन नहीं मिलती जितनी हमें होटल में बना बनाया खाना खाने पर मिलती है। क्योंकि उस केस में हमने खाने से जुड़े सरप्राइज़ को ऑलरेडी उतना फील नहीं करा होता और वो मील हमारे लिए प्लेट तक आते आते नॉर्मल नहीं बन गई होती है।
आखिर क्यों सभी लोग सिर्फ एक ही इंसान की मदद के लिए आगे आते है ?
यूनिवर्सिटी ऑफ पेन्सिलवेनिया में हुई एक स्टडी में देखा गया कि जब एक ग्रुप को पता लगा कि एक इंसान भूख के मारे तड़प रहा है और उसके पास खाने के लिए बिल्कुल भी पैसे नहीं है और दूसरे ग्रुप को यह पता लगा कि दुनिया में करोड़ों लोग भूखे मर रहे हैं।
लेकिन तीसरे ग्रुप को इन दोनों ही सिचुएशन के बारे में अवेयर कराया गया। तब उस अकेले इंसान को टोटल दोगुना ज्यादा डोनेशन से मिला बजाय ये पता होने के की दुनिया में ऐसे बहुत लोग हैं। सिर्फ यह अकेला नहीं। Psychology of Human behaviour कुछ ऐसे ही काम करता है।
हमें यह लगता है कि बड़ी प्रॉब्लम तो रहेंगी ही, तो क्यों ना हम atleast उस प्रॉब्लम को फिक्स कर लें, जो हमारे सामने है? यही रीज़न है कि क्यों? हम दुनिया भर की ट्रैजिक न्यूज़ सुनकर थोड़ा बुरा तो फील करते हैं, लेकिन जब न्यूज़ या फिर सोशल मीडिया पर किसी अकेले इंसान की स्टोरी वायरल हो जाती है तब हम उस अकेले इंसान से ज्यादा इन्फ्लुयेन्स होते हैं और उसके लिए ज्यादा प्राथना या फिर डोनेट करते हैं।
झूठ का छुपाना इतना मुश्किल क्यों ?
हम अक्सर सोचते हैं कि सच बोलने और उसके नतीजों को फेस करना बहुत मुश्किल चीज़ होती है जिसकी वजह से हम झूठ का सहारा लेते हैं और उसे एक cheat code की तरह देखते हैं। जिसका शायद हमें कोई नतीजा ना भुगतना पड़े। लेकिन चीज़े रियल लाइफ ऐसे काम नहीं करती। प्रोफेशनल कोच अरनॉल्ट पेटेंट बोलते है कि जब भी हम अपने दिमाग में कोई ऐसा इल्यूजन क्रिएट करते हैं जो यूनिवर्स के बेसिक लॉ यानी सच के परे होता है।
तब हमें उस झूठ को मेनटेन करें रखने के लिए अपनी बहुत एनर्जी देनी पड़ती है। यानी हम अपने हर झूठ को एक ब्राउज़र में खुले टैब की तरह सोच सकते हैं। जैसे ही हम एक झूठ बोलते हैं वैसे ही हमें कुछ टैब्स और खोलनी पड़ती है। उस झूठ को छुपाए रखने के लिए।
और हम ये एक हद तक ही कर सकते हैं। इसलिए झूठ को अपना साथी मत बनाओ और दूसरों के आगे खुद को एक बहुत बड़ा विक्टिम एक हीरो की तरह भी मत दिखाओ, रिऐलिटी जैसी हैं, वैसी ही उसे एक्सेप्ट करो और सच से दोस्ती करो।
हमारी परेशानियां ख़तम क्यों नहीं होती ?
खाली दिमाग शैतान का घर ये लाइन आठवे पॉइंट को बहुत अच्छे से समझाती है क्योंकि यह हमारे साथ हमेशा होता है कि हमारी एक प्रॉब्लम सॉल्व नहीं होती कि दूसरी पहले ही तैयार खड़ी होती है। 2018 में हुई एक रिसर्च में लोगों को अलग अलग चेहरे दिखाए गए और यह पूछा गया कि उन्हें कौन सा चेहरा सबसे ज़्यादा गुस्से में लग रहा है?
लेकिन जैसे जैसे रिसर्चर्स ने गुस्सैल चेहरे दिखाना बंद ही कर दिया। तब सभी देखने वाले लोगो की एक गुस्सैल चेहरे की डेफिनेशन ही बदल गई। और वो उन चेहरों को भी डरावना और गुस्सैल बोलने लगे जिन्हे उन लोगो ने पहले स्वीट और हैप्पी बोलै था।
इससे हमें यह पता लगता है की अगर आप ने अपने दिमाग को पहले से ही प्रॉब्लम ढूंढ़ने के लिए ट्रैन कर रखा हो तो वो प्रॉब्लम के वहां ना होने पर भी कहीं ना कहीं से प्रॉब्लम निकाल ही लेता है। यही रीज़न हे की positive affermations यानी खुद से अच्छी बाते बोलना और प्राथना करना इतना सेहतमंद होता है।
डिसीजन बदले जाने पर हमें गुस्सा क्यों आता है।
हम सभी दुनिया को एक पर्टिकुलर दुनिया से देखते है। लोगो के बारे में हमारी अलग ही राये होती है, और हर Idea, Policy, और Rules के ऊपर हमारा अपना ही ओपिनियन होता है। और हम इस ओपिनियन को बदलना नहीं चाहते।
यह इस लिए होता है की हम में से बहोत से लोग खुद की पहचान को अपने बिलिव्स और विचारधारा पर बेस करते है। उद्धरण के तोर पर अगर कोई इंसान आपके फेवरेट सेलेब्रिटी या एथलीट के बारे में यह बोलता है, की वो असल में कितना बुरा है,
तो आपका मन आपको वो बात मानने से रोकता है। और आप बिना असली फैक्ट को जाने ही अपनी बात को पोसिटिव डिक्लेअर कर देते हो। या फिर बस नाराज़ हो जाते हो।
क्युकी अगर ऐसी कोई बात सच निकली तो वो हमारे ईगो के लिए यह एक खतरा होगा। ऐसी स्तिथि में हम झूठ तक का साथ दे देते है ताकि हमारी ईगो सही सलामत रहे। इस लिए खुद की पहचान इन छोटी मोती चीज़ो पर मत बनाओ। और अगर आप किसी शर्मीले इंसान को देखो यही सेम गलती करते हुए, तो उससे लड़ने के बजाये या तो उसे असलियत समझाओ या फिर उससे दूर रहो।
और यहीं पर हमारा आज का यह आर्टिकल समाप्त होता है। उम्मीद हे की आप को इससे बहुत कुछ सिखने को मिला होगा। अब बारी हे इसे और लोगो तक पहुंचने की। जो की आप की जिम्मेदारी हे। हमें निचे कमेंट अपनी राय देना ना भूले। जय हिन्द।